दुनियाभर में महिलाओं की हर क्षेत्र में बढ़ती भूमिका का असर भारत जैसे पुरुष प्रधान देश में भी देखने को मिला, लेकिन यह इतना नहीं कि जिसपर फख्र महसूस किया जाए। फिर इसपर जब भी महिलाओं से जुड़े कुछ क्रांतिकारी निर्णय लिए जाते हैं तो मैं उस निर्णय पर वाहवाही करने के बजाय सामाजिक दृष्टिकोण से एक नज़र डालती हूं। मुझे लगता है ऐसा करना ज़रूरी भी है ताकि लिए गए निर्णयों के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही पहलुओं पर चिंतन किया जा सके।
हाल ही में कर्नाटक सरकार ने कामकाजी महिलाओं के लिए पीरियड लीव पर मंजूरी दी है जिसके मुताबिक उन्हें महीने में एक और साल में 12 छुट्टियां पीरियड्स के लिए दी जाएंगी। सरकार ने इस निर्णय को प्रगतिशील बताया है। अफसोस इस प्रगति में बिहार ने कर्नाटक को पीछे छोड़ दिया क्योंकि वहां पीरियड लीव साल 1992 में ही दी जा चुकी है वो भी हर महीने में दो। इसके बाद केरल और ओडिशा राज्य ने भी इस दिशा में अपना कदम उठाया था। यह तो रही राज्यों के पीरियड लीव देने की बात पर यहां मेरे कुछ सवाल हैं जो कई लोगों को सवाल कम और समाज की दयनीय स्थिति या समस्याएं ज्यादा लग सकते हैं।
भारत जैसे देशों में पीरियड लीव और उससे जुड़ी समस्याएं
एक पितृसत्तात्मक समाज में पीरियड्स पर खुलकर बात करना आज भी वर्जित है, वो बात अलग है कि सोशल मीडिया के इस दौर में थोड़ी आज़ादी दिखने लगी है पर घर की स्थिति इसके बिलकुल उलट है। आइए उन समस्याओं पर नज़र डालें जो पीरियड लीव को गैर ज़रूरी बना देती हैं :
केमिस्ट से काले पैकेट में सैनिटरी पैड
किसी भी केमिस्ट शॉप पर सैनिटरी पैड की खरीदारी करते समय उसे काले पैकेट में कुछ इस तरह रैप किया जाता है कि किसी की इसपर नज़र न पड़े। मुझे तो लगता है उस काले पैकेट की पहचान ही सैनिटरी पैड हो गए हैं, फिर भी ऐसा किया जाना यह संकेत देता है कि हम पीरियड पर खुलकर बात करने के लिए अभी पूरी तरह से तैयार नहीं।
पुरुषों से इसे छिपाना
पीरियड्स से जुड़े विषय पर पुरुषों से बातचीत करने की भी मनाही है, मुझे नहीं मालूम इसे गुप्त रखने का नियम किसने बनाया। आज भी महिलाएं पुरुषों से पीरियड्स पर खुलकर नहीं कह पाती, कहीं उनकी शर्म उन्हें रोकती है तो कहीं सामाजिक बंधन।
महिलाओं की गलत मानसिकता
महिलाओं के मन में सदियों से पीरियड्स को लेकर जो अपराधबोध, अशुद्धता और शर्म की बातें डाली गई हैं, उसकी वजह से आज भी वे इसपर सबके सामने खुलकर बात करने से हिचकिचाती हैं। कुछ ने तो पीरियड को अशुद्ध ही मान लिया है। फिर महिलाएं पीरियड लीव लेने पर हिचकिचा भी तो सकती हैं?
कार्यस्थल पर शोषण और भेदभाव
जब हम घर में इस विषय पर खुलकर बात नहीं कर सकते तो ऑफिस में ऐसा कर पाना बिल्कुल भी संभव नहीं। उसपर कई बार कार्यस्थल पर महिलाओं का पीरियड लीव लेना पुरुषों के मन में उन्हें कम प्रोफेशनल बना सकता है। यहां स्त्री और पुरुष की समानता की जो बात की जाती है, उसका कोई अर्थ नहीं रह जाता अगर सभी इस निर्णय का स्वागत न करें। कुछ पुरुष सहकर्मी या बॉस पीरियड लीव को टैबू की तरह भी मान सकते हैं क्योंकि उनकी नज़र में यह व्यक्तिगत मामला हो सकता है।
ग्रामीण भारत की सोच
शहरों में कुछ हद तक माहवारी पर बात करने में खुलापन आया है लेकिन ग्रामीण समाज आज भी अपनी उसी रूढ़िवादी सोच के साथ जी रहा है। सरकार द्वारा दी गई यह पीरियड लीव ग्रामीण इलाकों में सरकारी कार्यालयों के लिए न के बराबर है, जहां अधिकार होते हुए भी महिलाएं हिचक के चलते इसे नहीं इस्तेमाल कर पाएंगी।
शिक्षा में जेंडर का भेदभाव
स्कूलों में पीरियड्स को लेकर लड़कियों को अलग से शिक्षा दी जाती है, जबकि लड़कों को इस विषय से दूर रखा जाता है। मेरा सवाल है कि आखिर ऐसा क्यों? अगर उनमें सामानुभूति की भावना जागृत नहीं होगी तो हम तरक्की के रास्ते पर कदम से कदम मिलाकर आगे कैसे बढ़ पाएंगे?
विज्ञापनों में रक्त का रंग नीला
आपने देखा होगा कि टीवी या सोशल मीडिया पर पीरियड या सैनिटरी पैड से जुड़े विज्ञापनों में रक्त को नीला दिखाया जाता है, अब आप सोच रहे होंगे ऐसा क्यों? तो इसका जवाब है समाज की संवेदनशीलता। जहां माहवारी को दशकों से शर्मनाक और अशुद्ध बताया गया हो वहां आज के विज्ञापनों में नीला रंग उसकी शुद्धता का प्रतीक बन जाता है। मेरा सवाल है कि हम जागरूक करने के बजाय इस तरह की सेंसरशिप कब तक लगाएंगे?
